वर्ण और जाति मुक्त भारत का संघी अभियान : नौ सौ चूहे खाके बिल्ली का हज करने का ऐलान (आलेख : बादल सरोज)

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यह समय जोरदार समय है। यह समय आजमाई और मुफीद समझी जाने वाली लोकोक्तियों, कहावतों और मुहावरों के पुराना पड़ जाने का समय है। वैसे विसंगतियों और एकदम उलट बर्ताब के लिए सामान्य रूप से प्रचलित कहावतों, मुहावरों में “शैतान के मुंह से कुरआन की आयतें” या “रावण का साधुवेश में आना” या “मुंह में राम बगल में छुरी” का उपयोग किया जाता रहा है। मगर इन दिनों लगातार ऐसी रोचक उलटबांसियां हो रही हैं कि उनके विरोधाभास को उजागर करने के लिए ये मुहावरे अपर्याप्त से लगने लगे हैं। नए रूपक गढ़ने की जरूरत आन पड़ी है। ऐसा ही एक घटनाविकास इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुयी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में लिया गया संकल्प है। इस बैठक में आरएसएस द्वारा अपने शताब्दी वर्ष में “सामाजिक समरसता और जाति-वर्ण मुक्त समाज की स्थापना का लक्ष्य हासिल करने के लिए कई तरह के अभियान शुरू करने” का निर्णय लिया गया है। उसने तय किया है कि इसके लिए वह “जाति-वर्ण मुक्त हिंदू समाज की स्थापना के लिए धर्मगुरुओं और समाज के प्रबुद्ध लोगों के जरिए अपने अभियान को धार देगा।” आरएसएस प्रवक्ता के अनुसार “सामाजिक समरसता और जाति-वर्ण व्यवस्था के खिलाफ अभियान कई स्तर पर चलेगा। खासतौर पर ग्रामीण अंचलों में स्वयंसेवक सभी वर्गों (पढ़ें ; जाति समूहों) की पूजास्थलों तक पहुंच, एक ही जगह सभी वर्गों का अंतिम संस्कार और एक ही जलस्रोत से सभी वर्गों के पानी पीने के लिए अभियान में तेजी लाएगा। इसके साथ ही, सभी गांवों में शाखा लगाने की गुंजाइश भी तलाशी जाएगी, जिनमें युवाओं को प्रेरित किया जाएगा।” प्रयागराज की बैठक में जिस “वर्ण-जाति मुक्त भारत” का अभियान तय किया गया है, वह संघ के अब तक के किये–धरे व्यवहार और लिखे–कहे विचार दोनों के ही एकदम 180 डिग्री उलट और उसकी अब तक की सारी धारणाओं के सर्वथा प्रतिकूल है। हालांकि इसमें भी समरसता को जोड़ा गया है, जिसका मतलब विभेदों के साथ निबाह के सिवा और कुछ नहीं होता।

बहरहाल पहले उनके आचरण और बर्ताब के ही दो–तीन उदाहरण देख लें। मध्यप्रदेश में सत्ता से हटाई गयी और तब तक पूर्व हो चुकी मुख्यमंत्री उमा भारती ने जब बगावत की थी, तब तबके आरएसएस प्रमुख के सी सुदर्शन ने टिप्पणी करते हुए उनके महिला और उनकी जाति के बारे में साफ़ इशारा करते हुए इसे “अपेक्षित और स्वाभाविक” बताया था। उनका आशय साफ़ था कि चूँकि वे एक जाति विशेष में जन्मी हैं और उस पर अतिरिक्त यह कि वे महिला हैं, इसलिए उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है। देश भर के अनेक मंदिर ऐसे हैं, जिनके बाहर शूद्रों का प्रवेश वर्जित होने की तख्तियाँ टँगी हुयी हैं। अकेले इसी वर्ष में दो दर्जन से अधिक ऐसे मामले राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा के विषय बने, जिनमें किसी दलित के मंदिर में घुसने या प्रतिमा को छू देने भर से पिटाई, यहाँ तक कि कुछ मामलों में मौत तक, का सामना करना पड़ा। इनके बारे में काफी लिखा जा चुका है। कहने की आवश्यकता नहीं कि देश के अधिकांश मंदिरों, हिंदी भाषी इलाकों के तकरीबन सभी मंदिरों, पर आरएसएस का कब्जा हो चुका है। जिन शंकराचार्यों को आरएसएस और भाजपा ने अपनी पालकी का कहार बनाया हुआ है, उनमे से अनेक सार्वजनिक रूप से बयान दे चुके हैं, देते रहते हैं कि शूद्रों का मंदिरों में प्रवेश हिन्दू “धर्म सम्मत” नहीं है और इसकी अनुमति कदापि नहीं दी जा सकती। पिछले कुछ वर्षों से जिन प्रवचनकर्ताओं की बाढ़–सी आयी हुयी है, जिनके लिए संसाधन और भीड़ जुटाने के लिए भाजपा की सरकारें बाकायदा लिखा–पढ़ी में आदेश जारी कर आंगनबाड़ीकर्मियों, सरकारी कर्मचारियों की ड्यूटी लगा रही हैं, जो प्रवचनकर्ता धार्मिक की बजाय सीधे–सीधे राजनीतिक और साम्प्रदायिक प्रवचन दे रहे हैं, अपने प्रवचनों में नाम लेकर मोदी और आरएसएस का गुणगान कर रहे हैं ; वे साफ़–साफ़ शब्दों में जातिश्रेणीक्रम की महत्ता और दलितों की निकृष्टता की बात कहते हैं और इसे धर्मसम्मत साबित करने में जुटे रहते हैं।

मामला सिर्फ गाँव, कस्बों की रियाया भर का नहीं है। सर्वोच्च पद पर बैठे राष्ट्रपतियों के मंदिर की सीढ़ियों से ही पूजा कर लौट आने और कार्यभार ग्रहण करने से पहले पुरोहितों द्वारा उनके शुद्धिकरण की सार्वजनिक घटनाओं तक जा पहुंचा है। उत्तरप्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री द्वारा कार्यभार लेने के साथ ही मुख्यमंत्री कार्यालय और निवास को गंगाजल से ओम पवित्रम-पवित्राय किये जाने की कारगुजारी पूरी दुनिया ने देखी है। आरएसएस और भाजपा ने कभी इन सब पर आपत्ति नहीं उठाई, उलटे किन्तु–परन्तु करके या तो इन सबकी अनदेखी की या इन्हीं के कुछ लोगों ने इसे उचित और सही ठहराया। योगी राज में हाथरस की गैंग रेप पीड़िता की मृत देह को जलाने के समय हुयी वीभत्सता से लेकर सारे भाजपा शासित प्रदेशों में लगातार बढ़ती दलित–आदिवासी उत्पीड़न की वारदातें और शासन–प्रशासन का उनके प्रति व्यवहार इस असली व्यवहार की कलुषित सच्चाई उजागर करता है। हाल में दशहरे के दिन दिल्ली में हुआ वाकया ताजा–ताजा है, जहां बाबा साहेब आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को लेने पर केजरीवाल से कह कर एक मंत्री को हटवा दिया गया। इस आख्यान का असर अब न्यायपालिका के कई फैसलों और टिप्पणियों में भी दिखाई देने लगा है।

इसके पहले संस्कृत पढ़ाने के लिए प्रामाणिक योग्यता के आधार पर नियुक्त हुए मुस्लिम और दलित शिक्षकों के विरोध में यह कुनबा कोहराम मचाकर उन्हें हटवा चुका है। जब प्रयागराज से जाति और वर्णमुक्त समाज की दुहाई दी गयी, ठीक उसी वक़्त बनारस के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में अथर्व वेद पढ़ाने हेतु प्रोफेसर पद पर नियुक्त किये गए डॉ सतेंद्र यादव को लेकर इसी विचार गिरोह की “अहीर होकर वेद पढ़ाओगे” की टिप्पणी आ रही थी ।

संघ की विचारधारा और जिस तरह का हिन्दू राष्ट्र वे बनाना चाहते हैं, उसका सबसे बुनियादी आधार और सार तत्व जाति और वर्ण ही है। हिन्दू राष्ट्र का पूरा दुःस्वप्न ही उस कथित गौरवशाली अतीत की बहाली है, जो वर्णाश्रम पर टिका हुआ है और जिसने भारत के बौद्धिक, सृजनात्मक, सामाजिक, आर्थिक विकास को ठप करके रख दिया था। विनायक दामोदर सावरकर से लेकर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से माधव सदाशिव गोलवलकर होते हुए आज तक के उनके सारे सैद्धांतिक सूत्रीकरण जिस नींव पर टिके हुए हैं, वह सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध हुए आंदोलनों के हासिल के निषेध और मनुस्मृति की पूर्णरूपेण बहाली के जरिये अतीत की महानता वाले समाज की पुनर्स्थापना की समझदारी है। आरएसएस ने इस सबसे कभी इंकार नहीं किया – कभी इस सबका खंडन नहीं किया। उनका लक्ष्य हिन्दू पद पादशाही की स्थापना है, जिसका एकमात्र मॉडल पुणे और उसके आसपास कुछ वर्ष रही पेशवाशाही है। वही हिन्दू पद पादशाही, जिसमे शूद्रों और पिछड़ों को गले में कटोरा और कमर में झाड़ू बाँध कर “हटो, बचो” चिल्लाते हुए निकलना पड़ता था, ताकि उनकी परछाईं भी पड़ने से कोई द्विज अशुद्ध और अपवित्र न हो जाये। यह वही पेशवाशाही थी, जिसके खिलाफ 1818 में भीमा कोरेगांव हुआ था। वही भीमा कोरेगांव, जिसकी 200 वी सालगिरह मनाने के अपराध में आज भी बाबा साहब आंबेडकर के पौत्र दामाद आनन्द तेलतुम्बड़े सहित दर्जन भर से अधिक बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट बिना जमानत जेलों में सड़ रहे हैं। क्या इसी व्यवहार और विचार के आधार पर आरएसएस जाति और वर्णमुक्त समाज की स्थापना करने जा रहा है?

आरएसएस के एकमात्र गुरु एम एस गोलवलकर के ग्रंथ के ग्रंथ वर्ण व्यवस्था की महानता और निर्विकल्पता से भरे हुए हैं। इसकी हिमायत में वे कहते हैं कि “ईरान, मिस्र, यूरोप तथा चीन के सभी राष्ट्रों को मुसलमानों ने जीत कर अपने में मिला लिया, क्योंकि उनके यहां वर्ण व्यवस्था नहीं थी। सिंध, बलूचिस्तान, कश्मीर तथा उत्तर-पश्चिम के सीमान्त प्रदेश और पूर्वी बंगाल में लोग मुसलमान हो गए, क्योंकि इन क्षेत्रों में बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था को कमजोर बना दिया था।” क्या आरएसएस अपने गुरूजी की इस बुनियादी प्रस्थापना का धिक्कार करने के लिए तैयार है? दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए किये जाने वाले विशेष प्रावधानों का आरएसएस हमेशा से विरोधी रहा। इनके बारे में उनकी हिकारत इस कदर रही कि गोलवलकर ने इन तबकों को “माँस का टुकड़ा फेंकने पर इकट्ठे होने वाले कौए” तक बता दिया। उनको बराबरी का मताधिकार देने की निंदा की। वे यहीं तक नहीं रुके, उन्होंने इसका दार्शनिक और सैद्धांतिक सूत्रीकरण तक किया। असमानता और उंच-नीच को सनातन और प्राकृतिक बताते हुए उन्होंने लिखा है कि “हमारे दर्शन के अनुसार, ब्रह्माण्ड का उदय ही सत्व, रजस और तमस के तीन गुणों के बीच संतुलन बिगड़ने के कारण हुआ है और इन तीनो में यदि बिलकुल सही संतुलन ‘गुणसाम्य’ स्थापित हो जाए, तो ब्रह्माण्ड फिर शून्य में विलीन हो जाएगा। इसलिए असमानता प्रकृति का अविभाज्य अंग है। इसीलिये ऐसी कोई भी व्यवस्था, जो इस अन्तर्निहित असमानता को पूरी तरह समाप्त करना चाहती है, वह विफल होने के लिए बाध्य है। : (एम एस गोलवलकर, बंच ऑफ़ थॉट्स, 1960, पृष्ठ 31) इसी पृष्ठ पर इसी बात को और आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं कि “जनता के द्वारा, ‘जनता के लिए’ की अवधारणा का अर्थ है : राजनीतिक प्रशासन में सबकी समान भागीदारी का होना। यह काफी हद तक एक भ्रम मात्र है।” हाल ही में सरसंघचालक मोहन भागवत ने जब गोल–मोल अंदाज में यह कहा था कि “मुमकिन है, वर्ण व्यवस्था कभी समाज के लिए लाभकारी रही हो, मगर अब नहीं है।” सवाल यह है कि क्या वे गोलवलकर के इस दार्शनिक सैद्धांतिक सूत्रीकरण को ठुकराने के लिए, इसे गलत बताते हुए संघ को इससे अलहदा करने के लिए तैयार हैं ?

नहीं। प्रयागराज में इसी वर्ण और जाति व्यवस्था से मुक्त भारत की स्थापना का मुगालता देने वाली आरएसएस ने इन सब वैचारिक धारणाओं से पल्ला नहीं झाड़ा है। वे समानता की कायमी करके ब्रह्माण्ड के शून्य हो जाने का जोखिम नहीं लेने जा रहे हैं। उनका अभियान वर्ण और जाति का माहात्म्य समझाने, उसे हिन्दू धर्म की महानता प्रतिपादित करने और अवर्णो तथा कथित निम्न वर्णों को उनके छोटे–छोटे देवता और भगवान थमा कर उनके अनुरूप जीवन व्यवहार का सबक सिखाने के लिए है।

यह नारा सिर्फ कार्यनीतिक है – टैक्टिकल – है। आरएसएस हिन्दुओं के लिए कॉमन सिविल कोड की बात नहीं करने जा रहा – यह असमानता और ऊंच नीच को कॉमन सिविल कोड बताने की मुहिम शुरू कर रहा है। यह सत्ता और समाज पर सम्पूर्ण वर्चस्व कायम करने के रास्ते पर पड़ने वाली वैतरणी को पार करने के लिए नाव की तरह इस्तेमाल की जाने वाली उल्लू की लकड़ी है।

कहते हैं कि जंगली चूहा सोते हुए मनुष्य को एक साथ नहीं कुतरता। एक बार कुतरता है, फिर फूंक मारकर राहत देता है, फिर कुतरता है और इस तरह जिसे कुतरा जाता है, उसे पता भी नहीं चलता। प्रयागराज से हुआ आव्हान ऐसी ही फूंक है – मगर यह फूँक सोते हुए मनुष्य पर ही काम आ सकती है, जागते इंसान पर नहीं। इस झाँसे और भ्रमजाल की फूंक का भी यही इलाज है : जागते हुए इंसानों के जाग्रत समाज का निर्माण।

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