मौजूदा वक्त में भारत सरकार अरुणाचल प्रदेश में छह बड़े जलविद्युत संयंत्रों का निर्माण करवा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि इनकी लागत बहुत ज़्यादा है। इनसे पर्यावरण को काफ़ी नुकसान होता है। साथ ही, मानवाधिकार से जुड़ी हुए अनेक चिंताएं भी हैं। इन सबके बावजूद, सरकार का पूरा ज़ोर इन परियोजनाओं पर है। ऐसे में, सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
सुष्मिता
टोन मिक्रो इदु मिश्मी जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। टोन मिक्रो एटालिन से कुछ घंटे की दूरी पर रहते हैं। एटालिन ही वह जगह है जहां पर भारत के सबसे बड़े बांध को बनाने की तैयारी चल रही है। उनके समुदाय के लोग इस बात से खुश थे कि सरकार ने दिसंबर 2022 में एटालिन जलविद्युत परियोजना के लिए अस्थायी रूप से फॉरेस्ट क्लीयरेंस से इनकार कर दिया था। लेकिन मिक्रो के मन में अभी भी एक डर है।
अरुणाचल प्रदेश: जैव विविधता और पानी से भरपूर एक नाज़ुक क्षेत्र
14 साल पहले, एटालिन की शुरुआत के बाद से इदु मिश्मी जनजाति के लोग इस आधार पर परियोजना का विरोध कर रहे हैं कि यह उनकी आजीविका को तबाह कर देगा। यह उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा। सरकार द्वारा दी गई अस्थायी राहत के बारे में मिक्रो को संदेह है। दरअसल, “क्षेत्र में बांधों को लेकर उनका अनुभव” उन्हें बताता है कि इस परियोजना को हरी झंडी मिल ही जाएगी। अरुणाचल में अन्य मेगा-डैम प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है। मसलन, 2,000 मेगावाट की क्षमता वाला लोअर सुबनसिरी और 2,880 मेगावाट क्षमता वाला दिबांग।
मिक्रो का कहना है, “एक मल्टीनेशनल कॉन्ट्रैक्टर, लार्सन एंड टुब्रो [एल एंड टी] ने पहले से ही [दिबांग] बांध बनाने की दिशा में सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए काम करना शुरू कर दिया है।” लोअर सुबनसिरी प्रोजेक्ट के इस गर्मी में चालू होने की उम्मीद है।
जल विद्युत के लिए नए सिरे से लगाया जा रहा ज़ोर
भारत ने 2019 की शुरुआत में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं (25 मेगावाट से अधिक क्षमता वाली) को अपने नवीकरणीय ऊर्जा परिवर्तन के केंद्र के रूप में मान्यता दी। तब से देश में जलविद्युत परियोजनाओं के लिए नए सिरे से ज़ोर दिया गया है। इस तरह का ज़ोर , खासकर पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू और कश्मीर में दिया जा रहा है। केंद्र सरकार ने 2019 में जलविद्युत से जुड़े निर्माण को वित्तीय सहायता देने के लिए कई उपायों को भी मंज़ूरी दी थी।
पिछले साल फरवरी में, बिजली और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री, आर.के. सिंह ने संसद में कहा था कि जल विद्युत का विकास हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता में है। यह साफ है। ग्रीन यानी हरित है। सस्टेनेबल यानी टिकाऊ है। रेनूअबल यानी नवीकरणीय है। यह प्रदूषण नहीं फैलाता। और यह पर्यावरण के प्रति हितैषी है। उन्होंने यह भी कहा था कि जल विद्युत “लंबे समय में सबसे सस्ती ऊर्जा” प्रदान करता है।
मंत्री ने 10 वर्षों के दौरान 18 राज्यों में 70 जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की बात कही थी। उन्होंने यह भी बताया था कि कुल मिलाकर 36 बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं।
इस साल भारतीय वित्त मंत्री ने 2023-24 के बजट में ग्रीन ट्रांजिशन, नेट-जीरो उद्देश्यों और ऊर्जा सुरक्षा के लिए 350 अरब रुपये के आवंटन का प्रस्ताव दिया। और विशेष रूप से जल विद्युत पर जोर देने का उल्लेख किया।
अरुणाचल प्रदेश के लिए, लोकसभा और केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) में भारतीय ऊर्जा मंत्रालय की प्रतिक्रियाओं के 2022-23 के आंकड़ों का विश्लेषण, सरकार की बांध निर्माण से जुड़ी महत्वाकांक्षाओं और परियोजनाओं की प्रगति को दर्शाता है।
यह नोट करना महत्वपूर्ण है कि आंकड़े केवल बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं से संबंधित है। जबकि अरुणाचल प्रदेश में कई छोटी जल विद्युत परियोजनाएं भी हैं।
आंकड़े निर्माण के विभिन्न चरणों में छह बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को दिखाती हैं, जबकि 13 को विभिन्न कारणों से रोक दिया गया है। 2003 के बाद से, अरुणाचल प्रदेश में 21 बांधों पर ‘सहमति’ दी गई, या उनका मूल्यांकन किया गया, जिनमें से 13 का निर्माण अभी शुरू किया जाना बाकी है। सीईए, परियोजनाओं की सहमति तब देता है, जब वह प्रस्ताव के तकनीकी-आर्थिक पहलुओं से संतुष्ट हो जाता है।
पानी और ऊर्जा के मुद्दों की निगरानी और विश्लेषण करने वाले पुणे स्थित एक केंद्र, मंथन अध्ययन केंद्र के समन्वयक और शोधकर्ता श्रीपद धर्माधिकारी ने कहा कि मूल्यांकन करते समय, सीईए को “यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है कि परियोजना, नदी बेसिन के लिए सर्वोत्कृष्ट यानी ऑप्टिमल है।” ऐसा ही इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 में निर्धारित किया गया है।
उन्होंने द् थर्ड पोल से यह भी कहा, “हालांकि, यह शायद ही कभी किया जाता हो।”
आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश परियोजनाओं में देरी हुई है क्योंकि उन्हें अभी तक पर्यावरण या फॉरेस्ट क्लीयरेंस नहीं मिली है।
अरुणाचल प्रदेश में बांधों के निर्माण को क्यों वाजिब ठहराया जा रहा है
परियोजनाओं में देरी होना, भारी लागत, पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक जोखिमों के बावजूद, भारत सरकार, जल विद्युत परियोजनाओं के लिए लगातार प्रयास कर रही है।
अपस्ट्रीम में चीन द्वारा बांधों के निर्माण के डर को आधार बनाकर अरुणाचल में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को सही ठहराया जाता है। चीन में बहने वाली यारलुंग सांगपो, भारत में प्रवाहित होने पर ब्रह्मपुत्र नदी बन जाती है।
दोनों देशों के बीच दुनिया का सबसे लंबा अनसुलझा सीमा विवाद – लगभग 4,000 किलोमीटर – है। इसमें अरुणाचल प्रदेश की स्थिति पर विवाद भी शामिल है।
वैसे तो, ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों के बीच 1962 में हुए युद्ध के बाद से शांति ही रही है, लेकिन जून 2020 में लद्दाख में, दोनों देशों के सैनिकों के बीच ताजा झड़पें हुईं। इससे 45 वर्षों के दौरान, पहली बार दोनों देशों ने इतनी बड़ी संख्या में अपने सैनिक गंवाए।
वैसे तो, अरुणाचल प्रदेश में बांध निर्माण पर ज़ोर देने के पीछे यह कारण है, इसका हवाला देते हुए कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया गया है। लेकिन कई अखबारों के लेखों में अनाम अधिकारियों का हवाला दिया गया है, जिसमें भारत में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार, द् टाइम्स ऑफ इंडिया भी शामिल है, जिसमें कहा गया है कि भारत को अरुणाचल में बांध बनाने की जरूरत है क्योंकि चीन अपस्ट्रीम बांधों के अपने नियंत्रण से “जल युद्ध” शुरू कर सकता है।
मुंबई स्थित थिंक टैंक, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के निदेशक, नीलांजन घोष ने कहा कि कथित खतरा “विचित्र और अवास्तविक लगता है।”
उनका कहना है कि ब्रह्मपुत्र का अधिकांश पानी, भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद नदी में आ जाता है। उन्होंने मानसून के मौसम में, बाढ़ चेतावनी के रूप में, दोनों देशों के बीच सहयोग के साक्ष्य की ओर भी इशारा किया।
हम अपनी ज़मीन पर शरणार्थी नहीं बनना चाहते… बांधों के बजाय हमें आजीविका, अस्पतालों और सामुदायिक विकास केंद्रों के लिए सहयोग की ज़रूरत है।
टोन मिक्रो
सरकार का यह भी तर्क है कि जल विद्युत इस क्षेत्र के विकास से भी जुड़ा हुआ है। अरुणाचल प्रदेश के बिजली विभाग में ट्रांसमिशन और प्लानिंग के चीफ इंजीनियर जिन्को लिंगी ने कहा: “बांधों का संचालन शुरू होने के बाद, अधिशेष बिजली उत्पन्न होगी। चूंकि ट्रांसमिशन लाइनें अब बेहतर हैं, इसलिए बिजली को अन्य राज्यों में भी ले जाया जा सकता है।” उनका यह कहना है कि यह अरुणाचल के लिए राजस्व उत्पन्न कर सकता है।
हालांकि, मिक्रो और अन्य स्थानीय समुदाय, विकास के इस रूप पर सवाल उठाते हैं।
मिक्रो कहते हैं, “हम अपनी जमीन पर शरणार्थी नहीं बनना चाहते हैं। बांधों से उस भूमि का स्थायी नुकसान होगा जिसका उपयोग हम मिथुन [एक बेशकीमती गोजातीय प्रजाति] को चराने के लिए, मछली पकड़ने के मैदान के रूप में और औषधीय पौधों के लिए करते हैं। कई गांवों का संपर्क कट जाएगा। इसके बजाय यानी बाधों के निर्माण के बजाय, हमें आजीविका, अस्पतालों और सामुदायिक विकास केंद्रों के लिए सहयोग की आवश्यकता है।”
वहीं विशेषज्ञ, अधिकांश परियोजनाओं की फाइनेंशियल वाइबिलटी यानी वित्तीय व्यावहारिकता पर संदेह व्यक्त करते हैं।
अन्य ऊर्जा उत्पादन विधियों के विपरीत, जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में लंबी देरी – कभी-कभी दशकों तक – अक्सर सरकार द्वारा परियोजनाओं को, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, जैसे नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड को वापस देने के कारण होता है।
इसके अलावा, कम से कम 13 निजी कंपनी के स्वामित्व वाली परियोजनाओं को परियोजना अधिकारियों को “वापस” कर दिया गया है। यह कदम परियोजनाओं के साथ, आगे बढ़ने के लिए कंपनियों की अनिच्छा को रेखांकित करता है। दरअसल, उन्हें बढ़ती लागत और डाउनस्ट्रीम कम्युनिटीज के भारी विरोध का डर है।
मंथन अध्ययन केंद्र से धर्माधिकारी ने बताया कि कुछ सस्ती तकनीकों की उपलब्धता के बावजूद, परियोजनाएं अभी भी महंगी हैं और जल विद्युत परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए सरकार को सब्सिडी प्रदान करने की आवश्यकता है।
अरुणाचल प्रदेश के विकास के नैरेटिव पर धर्माधिकारी ने कहा कि जब प्रोजेक्ट्स को वित्तीय आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता है तो इसकी जगह विकास के नैरेटिव को आगे बढ़ाया जाता है।
इस क्षेत्र में बांध बनाने की लागत उससे मिलने वाले लाभ की तुलना में बहुत अधिक है।
नीलांजन घोष, ओआरएफ
धर्माधिकारी यह भी कहते हैं कि चूंकि जिन स्थानों पर जल विद्युत परियोजनाओं की स्थापना की जाती है, वे जगहें बेहद अलग तरह की होती हैं, इनके संचालन में भारी लगात आती है, इसके अलावा अगर इनके चालू होने में देरी हो जाए तो लागत और भी बढ़ जाती है। ऐसे में, इस तरह की परियोजनाओं के लिए, एक समय में कुल लागत के बारे में कुछ भी तय कर पाना काफी मुश्किल है।
हालांकि, दो साल पहले उन्होंने और उनकी टीम ने एटालिन बांध के संचालन की लागत की गणना की थी, जब फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने बिजली मंत्रालय से लागत पर अपना अनुमान प्रस्तुत करने को कहा था।
मंथन के शोधकर्ताओं ने पाया कि जलविद्युत परियोजनाओं को व्यावसायिक रूप से आकर्षक बनाने के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी के बावजूद भी पैदा होने वाली बिजली सस्ती नहीं है। दरअसल, विशेषज्ञों का कहना है कि जरूरत इस बात की है कि सौर और पवन ऊर्जा को मिलाकर एक पैकेज बनाकर कॉर्मिशयल प्लेयर्स को बेचा जाए।
उदाहरण के लिए, लोअर सुबनसिरी परियोजना, जो इस वर्ष के अंत में चालू होने वाली है, इसकी मूल लागत 200 फीसदी से अधिक हो गई है। इसकी बढ़ी हुई लागत 132.11 अरब रुपये है, जो मूल लागत से बहुत अधिक है।
घोष का कहना है, “इन परियोजनाओं के स्थापित होने और चालू होने में आने वाली सभी लागतों के अलावा, अगर हम पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाओं के नुकसान- सेडीमेंट्स यानी तलछट जैसे तत्व, जो मिट्टी की उर्वरता आदि को बढ़ाते हैं- के मूल्य पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में बांध बनाने की लागत, प्राप्त होने वाले लाभ की तुलना में बहुत अधिक है। इसके अलावा, पुनर्वास, विस्थापन और संघर्षों की सामाजिक लागत के बारे में हमें सोचने की जरूरत है?
साभार: दथर्डपोलडॉटनेट
+ There are no comments
Add yours