ढाई दिन की बदशाहत क्या बदशाहत नहीं होती! (व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)

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देखा ना, मोदी विरोधियों की एंटीनेशनलता खुलकर सामने आ ही गयी। इनसे दुनिया पर भारत की बादशाहत तक नहीं देखी जा रही। उसमें भी पख लगाने लगे। बताइए, जब तक जी-20 की अध्यक्षता नहीं आयी थी, तब तक तो कह रहे थे कि अपना नंबर कब आएगा। इंडोनेशिया तक का नंबर आ गया, अपना नंबर कब आएगा? और अब मोदी जी दुनिया की बादशाहत ले आए हैं, तो भाई लोग कह रहे हैं कि जी-20 की अध्यक्षता तो इकदम्मे टेंपरेरी है। अग्निवीर से भी ज्यादा टेंपरेरी — सिर्फ एक साल के लिए। और वह भी रोटेशन से। आज टोपी एक के सिर, तो कल वही टोपी किसी और के सिर। टोपी मत देखो, टोपी के नीचे का सिर देखो, जो हर साल बदलता रहता है। वह भी अपने आप। न ज्यादा जोश से सिर लगाने से टोपी, उसी सिर से चिपकी रह जाएगी और न लापरवाही से पहनने से, टैम पूरा होने से पहले उडक़र टोपी किसी और के सिर पर जाकर बैठ जाएगी। अव्वल तो टोपी है, उसे किसी का बादशाहत मानना ही गलत है। फिर भी अगर किसी ने टोपी का ही नाम बदलकर बादशाहत कर भी दिया हो, तब भी यह सिर्फ ढाई दिन की बादशाहत है। ढाई दिन की बदशाहत पर इतना गुमान! हम तो इंसान की पूरी जिंदगी पर गुमान को गलत मानने वालों में हैं और ये ढाई दिन की बादशाहत पर इतना गुमान दिखा रहे हैं। ये तो भारतीय परंपरा नहीं है।

देखा, कैसे मोदी जी के विरोधियों ने इसमें भी अपनी तुष्टीकरण की पॉलिटिक्स घुसा ही दी। ओहदा दिया भी तो बादशाह का। न संस्कृत, न तमिल, सीधे उर्दू का शब्द लिया। मोदी जी बादशाहत वाली बात पर ना करें तो, बिना बात सांप्रदायिक कहलाएं और इसके ताने सुनने पड़ें सो अलग कि अगर बादशाहत भी नहीं मानते, तो इतना शोर-शराबा क्यों? फिर सिर्फ बादशाहत की बात होती, तो मोदी जी हजम भी कर जाते, शहनवाज हुसैन, मुख्तार नकवी वगैरह की तरह। पर ढाई दिन के बादशाह का किस्सा मोदी जी ने भी सुन रखा है। तब अपनी बादशाहत ढाई दिन की कैसे मान लें? एक तो ढाई दिन वाली बादशाहत, मुगल बादशाह हुमायूं ने बख्शी थी और निजाम भिश्ती ने पायी थी। वह भी बादशाह की जान बचाकर, उसे अपनी मशक के सहारे गंगा पार कराने के ईनाम के तौर पर। यानी हर एंगल से तुष्टीकरण वाला मामला हुआ। उसके ऊपर से निजाम भिश्ती की ढाई दिन की बादशाहत को उसके एक ही काम के लिए याद किया जाता है — भिश्ती ने चमड़े का सिक्का चलवाया! ये लोग क्या कहना चाहते हैं — मोदी जी दुनिया पर अपनी बादशाहत में जो कुछ भी करेेेंगे या देश में जो कुछ भी कर रहे हैं, चमड़े के सिक्के चलाने जैसा है! यानी तमाशा ही तमाशा, काम-धाम एक पैसे का नहीं! मोदी जी के विरोधियो, अब तो आडवाणी जी की याद दिलाना छोड़ दो।

ये विरोधी जब मोदी जी के मन की बात सुनते ही नहीं हैं, तो समझेंगे कैसे? वर्ना यह समझना क्या मुश्किल है कि मोदी जी के मकसद के लिए ढाई दिन भी काफी हैं, फिर यह तो एक साल का मामला है। मोदी जी को कौन–सा अपने बाल-बच्चों को दुनिया की बादशाहत विरासत में देकर जाना है, जो वह बादशाहत लंबी चलवाने की सिरदर्दी मोल लेेंगे। उन्हें तो सिर्फ दुनिया का मार्गदर्शन करने के लिए एक संदेश देना है — संस्कृत में ’वसुधैव कुटुम्बकम’ और अंगरेजी में ‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य।’ अब प्लीज यह टैक्रीकल आब्जेक्शन मत करने लगना कि संस्कृत से अंगरेजी में पहुंचते-पहुंचते, यह ‘एक भविष्य’ कहां से आ गया। भूल गए मोदी जी का वैदिक गणित, ए प्लस बी करते हैं, तो एक एबी एक्स्ट्रा आ ही जाता है। यानी सिंपल है — एक भविष्य, वसुधा और कुटुम्ब के जुडऩे से आया एक्स्ट्रा है। और हां! इस एक भविष्य के लिए भी मोदी जीे के पास एक फार्मूला है, पर यह संस्कृत में नहीं है। फार्मूला है — सामूहिकता और अलग-अलग सुरों से मिलकर बनने वाली धुन। इतना रास्ता दिखाने के लिए, तो दुनिया के लिए विश्व गुरु का एक साल का क्रैश कोर्स ही काफी है।

हमें पता है कि मोदी जी के विरोधियों को इसमें भी आब्जेक्शन जरूर होगा। और कुछ नहीं, तो यही पकडक़र बैठ जाएंगे कि जो अपने यहां वसुधैव कुटुम्बकम का पालन नहीं करता हो, सारी दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम कैसे पढ़ा सकता है? माने पढ़ा तो सकता है, पर जो खुद उसका पालन नहीं करता है, दूसरों को सारी दुनिया को कुटुम्ब मानना सिखा नहीं सकता है। सारी दुनिया की छोड़ो, मोदी जी का कुनबा पड़ौसी को तो दुश्मन बनाने में लगा है। ‘2002 के गुजरात’ का पूरे देश को सबक सिखाकर अभी से, 2024 के लिए मोदी जी की गद्दी पक्की कराने में लगा है। कभी लव जेहाद, तो कभी आबादी जेहाद के किस्से फैलाने में लगा है। वह किस मुंह से दुनिया को ‘‘सब एक हैं’’ का पाठ पढ़ाएगा और उसके पढ़ाने से दुनिया में कौन यह पाठ सीख जाएगा?

कोरोना तक को लेकर सांप्रदायिक नफरत फैलाने में तो मोदी जी का इंडिया पूरी दुनिया में नंबर वन पर आया है; उसने विष गुरु का ताज अपने सिर पर सजाया है। इस नफरत विशेषज्ञ का मोहब्बत का कोर्स करेगा कौन? लेकिन, ये सब मोदी जी की कामयाबी से जलने वालों की बहानेबाजियां हैं। वर्ना मोदी जी पढ़ाने के मामले में एकदम प्रोफेशनल हैं, चौबीसों घंटा सातों दिन वाले। चाहे चुनाव के लिए पब्लिक को पढ़ाना हो या विश्व गुरु बनकर बाकी दुनिया को, प्रोफेशनल अपने इमोशन्स को काम के साथ नहीं मिलाता। प्रोफेशनल, अपने पढ़ाने के लिए पहले खुद करने-मानने की शर्त नहीं लगाता।

और ये जो विरोधी बहुत ढोल पीट दिया, बहुत प्रचार कर दिया का शोर मचा रहे हैं, यह तो कत्तई झूठा है। एक साल में दो सौ अंतर्राष्ट्रीय बैठकें वह भी पचास जगहों पर यानी देश के सारे राज्यों में। लेकिन, विश्व गुरु के लिए इतना तो कोई ज्यादा नहीं है। इस सब के लिए ताम-झाम तो चाहिए ही चाहिए, वर्ना विदेशी मेहमान क्या कहेंगे! पर देश की इज्जत बचाने के लिए जो करना जरूरी है, उसके सिवा मोदी जी ने एक छोटा सा फालतू आयोजन किया हो, तो कोई कह दे। और तो और 1 दिसंबर से दुनिया पर उनकी बादशाहत चालू भी हो गयी और एक मामूली–सा राज्याभिषेक तक नहीं किया! निजी गोमूत्र पार्टी तक नहीं। फिर भी विरोधी बात करते हैं, एक मामूली पट्टे का खामखां में ढोल पीटे जाने की।

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